वार्मिंग नहीं, ग्लोबल कूलिंग की आहट, मार्च में बारिश के साथ गिर रहे हैं ओले
ग्वालियर। पिछले दिनों में जिस प्रकार से आसमान से ओले बरसे हैं और सड़क पर जिस प्रकार से बर्फ की चादर बिछी है, उससे यही लगता है कि ग्लोबल वार्मिंग नहीं, बल्कि ग्लोबल कूलिंग का युग आ रहा है। ग्वालियर में गिर रही बर्फ....
यह कोई साइंस फिक्शन नहीं है, बल्कि संकेत मिल रहे हैं कि आने वाले 15 सालों में एक मिनी आइस एज की वापसी होगी। खासतौर से भारतीय उपमहाद्वीप इससे प्रभावित होगा। इसकी शुरुआत हो चुकी है। एक दिन पहले ग्वालियर अंचल में बारिश के साथ जमकर ओले बरसे और तापमान तेजी से गिर गया।
सड़कों पर बिछ गई थी बर्फ
इन दिनों बर्फ की सफेद मोटी चादर ओढ़े हिमालय विंध्याचल पार कर दक्षिण भारत में भी भारी ठंड सौंप रहा है। दुनिया के कई हिस्सों में भारी हिमपात ने पुराने कितने ही रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं। दरअसल धरती इस समय भीषण मौसमी बदलावों के दौर से गुजर रही है। कैंब्रिज और ब्राउन विश्वविद्यालय की संयुक्त रिपोर्ट बताती है कि अब तक आठ हिमयुगों को झेल चुकी धरती की इस ठंडाती स्थिति पर वैज्ञानिक जोर-शोर से शोधरत हैं।
इस समय पृथ्वी भीषण बदलाव के दौर में है। यह बदलाव प्राकृतिक रूप लिए हुए हैं, मगर इसके पीछे हाथ हमारा ही है। धरती पर मानव गतिविधियों ने ही नए भूगर्भीय युग को जन्म दिया है। धरती पर 11,500 वर्ष पूर्व होलोसीन युग की शुरुआत हुई थी। कुछ भूगर्भशास्त्रियों का मानना है कि धरती पर मनुष्य की छेड़छाड़ और अपना कुनबा बढ़ जाने से नया एंथ्रोपोसीन युग आ चुका है।
लिसेस्टर यूनिवर्सिटी के डॉ. जेन जाला सीविकज इस दिशा में अपने विचार स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मनुष्य इस धरती पर जो कुछ कर चुका है, उसकी भूगर्भीय परीक्षा होनी बाकी है। कहना न होगा कि हमारी करतूतों ने ही ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति पैदा की है। यही स्थिति वह बीच का दौर लाएगी, जो भीषण ग्लोबल कूलिंग लाएगा। इस स्थिति को हर कोई झेल ले, मुमकिन नहीं है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस बैंगलुरु के वैज्ञानिक जे. श्रीनिवासन की एक रिसर्च में दुनिया के कई इलाकों से आंकड़ों एकत्र किए गए। इनके विश्लेषण से पता चला कि 1997 से धरती के तापमान में ज्यादा वृद्धि नहीं हुई है। प्रदेश के मौसम विज्ञानी अनुपम काश्यपी के मुताबिक मौजूदा फिनामिना तो लोकल डिस्टर्बेंसेज ही हैं, लेकिन 2030 की मिनी आइस एज के लिए प्रारंभिक संकेत माने जा सकते हैं। परंतु सही निष्कर्ष निकालने के लिए आकंड़ों का विश्लेषण करना होगा।
400 साल पहले भी हो चुका ऐसा
ग्लोबल-कूलिंग फिनामिना की वजह यह है कि 20वीं सदी में लगातार उच्च स्तर पर ऊर्जा छोड़ने के बाद सूर्य अपने न्यूनतम स्तर की ओर बढ़ रहा है। ऐसा 1645 में भी हो चुका है, उस वक्त इसके कारण लंदन की टेम्स नदी भी जम गई थी।
इस समय योरप सहित आधी दुनिया बर्फ से ढंकी है। जहां आमतौर पर इस मौसम में बर्फ रहती है वहां के लोग भी इसे असामान्य ठंड बता रहे हैं। प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक जनार्दन नेगी ने कहा है कि ग्लोबल कूलिंग(वैश्विक शीतलन) को लेकर उनकी टिप्पणी सही साबित हो रही है।
डॉ. नेगी ने कहा था कि ग्लोबल कूलिंग सूर्य की सतह पर हो रही हलचल की वजह से है। यह हलचल अभी शांत है इसलिए पृथ्वी ठंडक महसूस कर रही है।
डॉ. नेगी हैदराबाद के अस्पताल में डायलेसिस पर हैं। वहां से उन्होंने बताया कि ग्लोबल कूलिंग की शुरुआत 2010 में हो चुकी है। दक्षिणी स्कॉटलैंड में 7 दिसंबर 10 को शताब्दी का न्यूनतम तापमान रिकॉर्ड किया गया था। जुलाई में दक्षिणी गोलार्द्ध के क्वींसलैंड से भी वेधशालाओं ने न्यूनतम तापमान रिकॉर्ड कराया था जो लगभग शून्य दस और तेरह डिग्री सेल्सियस था।
डॉ. नेगी सौर धब्बों को इसकी वजह मानते हैं। उनका कहना है कि पृथ्वी की जलवायु सौर गतिविधियों के प्रभाव से मुक्त नहीं है। वर्ष 1645 से 1715 तक सौर गतिविधियां एकदम शांत थीं। पृथ्वी के लिए वह युग मिनी हिमयुग जैसा था। अब हम पुनः उस दौर की ओर जा रहे हैं।
डॉ. नेगी के अनुसार सूर्य पर चुंबकीय गतिविधियां घटने से धब्बे कम हो जाते हैं। जब धब्बे कम होने लगें, इसका मतलब है कि सौर सतह शांत है और जब सौर सतह पर हलचल बढ़ने लगे, तब समझ लें कि सतह अशांत है। अशांत सौर सतह तपन बढ़ाती है जबकि शांत सतह शीतलन बढ़ाती है।
पिछले कुछ सालों में अमेरिका हो, यूरोप हो, भारत हो या चीन पिछले सालों में ठंड और बर्फबारी ने रिकार्ड तोड़ा है। मौसम में बदलाव का हाल यह है कि राजस्थान में बाढ़ आ रही है तो जहां पहले ठंड पड़ती थी वहां गर्मी पड़ रही है और जहां गर्मी वहां भयंकर ठंड पड़ रही है। इसी से मौसम वैज्ञानिक अंदाज लगा रहे हैं कि ग्लोबल कूलिंग का दौर आ रहा है।
एक थ्योरी नार्लीकर की भी
एक थ्योरी प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर की है। उनके मुताबिक समुद्रों का पानी धरती के क्लाइमेट को नियंत्रित करता है। समुद्र के ऊपर गर्म हवा उठकर वायुमंडल में जाती है, जिससे महासागर गर्म रहते हैं, लेकिन यह सही नहीं है। समुद्री पानी की ऊपरी सतह ही गर्म होती है, नीचे का पानी ठंडा। ठंडा भी इतना की बर्फ जम जाए। पिछले कुछ सालों में यह ठंडक बढ़ रही है। यही ठंडक बढ़कर मैदानी इलाकों तक आ रही है, क्योंकि समुद्र तक पर्याप्त गर्मी नहीं पहुंच रही है।
सताएगी ग्लोबल कूलिंग
शिकागो की यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनॉय के प्रोफेसर टोर्वफोर्न टॉर्नक्विस्ट ने तो अपनी शोध रिपोर्ट में स्पष्ट कहा है कि एक-दो देश या स्थान विशेष नहीं, बल्कि विश्व स्तर पर मौसम में गड़बड़ी जारी है, जो ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभाव के अतिरिक्त प्रभाव के रूप में ग्लोबल कूलिंग की दस्तक दे रही है।
रिपोर्ट के अनुसार, धरती का लगभग दो-तिहाई भाग पानी से घिरा है, जो कभी भी ठंडा हो बर्फ बन जाने की आशंका प्रकट करता है। कुल बर्फ का दसवां भाग केवल दक्षिणी ध्रुव प्रदेश में ही है। यहां सबसे ऊंची सतह पर बर्फ की मोटाई लगभग 14 हजार फुट आंकी गई है। यह मोटाई खतरे की घंटी है और पृथ्वीवासियों को सुनामी के कहर से भी कई गुना अधिक खतरे की संभावना जताते जलमग्न करने की चेतावनी है।
सूरज समेटेगा अपनी गठरी
धरती के जीव जगत और प्राकृतिक संसाधनों को सूरज की बेहद आवश्यकता है। अगर सूरज की किरणें धरती पर न आएं तो इसका जल जम जाए, पौधे मर जाएं और हम सांस न ले पाएं। जब-जब इस प्रकाश में कटौती या बढ़ोतरी हुई, धरती का अस्तित्व खतरे में पड़ा। अपनी किरणों की गठरी खोले सूरज की सौगात को लौटा देना कितना खतरनाक हो सकता है, इससे जुड़ी यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन से जारी रिपोर्ट यह तथ्य प्रस्तुत करती है कि ग्लोबल कूलिंग प्रारंभ हो गई है।
शोधकर्ता डॉ. थियोडोर एंडरसन के अनुसार, मानव द्वारा प्रदूषणकारी तत्व लिए ‘एयरोसोल’ वातावरण में गंभीर स्थिति पैदा कर रहे हैं। इन कणों का इतनाजमावड़ा हो गया है कि यह सूरज से आती गर्म किरणों को वापस अंतरिक्ष में धकेल रहे हैं। इस तरह से गरमाहट में कटौती होती जा रही है। फलस्वरूप धरती पर ग्लोबल कूलिंग की स्थिति पैदा हो रही है।
रिपोर्ट के अनुसार, यह एयरोसोल दो प्रकार के असर दिखाते हैं- एक गुणात्मक यानी पॉजीटिव फोर्सिंग। इसमें पॉजीटिव गर्मी ठंडक का स्वागत करती है। लेकिन बदलती जलवायु नेगेटिव फोर्सिंग पैदा कर रही है। एयरोसोल कण बादलों की संरचना भी बदल रहे हैं।
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