अधिकतर लोग मंदिर इसलिए जाते हैं क्योंकि वहां पर जाने से मन को शांति मिलती है, पर मंदिर में दर्शन करने के पीछे क्या वैज्ञानिक सत्य हैं उनके बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं। असल में मंदिर दर्शन के पीछे सकारात्मक ऊर्जा को पाना होता है और यह तभी मिल पाती है जब आपकी पांचों इन्द्रियां सक्रिय होती हैं। ऐसे ही मंदिरों से जुड़े कई प्रश्नों के उत्तर हम आपको यहां दे रहे हैं। जानिए इनके बारे में-
मंदिर का वास्तु
जिस भी जगह पर मंदिर होता है वो सकारात्मक उर्जा को प्रवाहित करता है। मंदिर हमेशा उत्तर की तरफ बना होता है। उत्तर को उर्जा और विद्युत चुंबकीय तरंगों का स्त्रोत माना जाता है। जब भी आप मंदिर जाते हैं तब आप पर इन तरंगों का असर पड़ता है जिससे कुछ ही पल में आपका दिमाग सकारात्मक हो जाता है। चप्पल बाहर क्यों उतारते हैं
मंदिर में प्रवेश नंगे पैर ही करना पड़ता है, यह नियम दुनिया के हर हिंदू मंदिर में है। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि मंदिर की फर्शों का निर्माण पुराने समय से अब तक इस प्रकार किया जाता है कि ये इलेक्ट्रिक और मैग्नैटिक तरंगों का सबसे बड़ा स्त्रोत होती हैं। तीर्थक्षेत्र की पवित्र भूमि में चैतन्य होता है एवं भूमि में शीतलता होती है । तलुओंको भूमि की शीतल तरंगों का स्पर्श होने से, देह में शीतल तरंगें आकर्षित होकर, पूरे देह में समा जाती हैं एवं देह की उष्णता न्यून होने में सहायता मिलती है । इसलिए तीर्थक्षेत्र में, देवालय परिसर में एवं संतों के दर्शन हेतु नंगे पैर जाने का विधान धर्मशास्त्रमें है । जब इन पर नंगे पैर चला जाता है तो अधिकतम ऊर्जा पैरों के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाती है कुछ लोग मौजे सहित ही मंदिर में प्रवेश कर जाते हैं। ऐसा करने मौजे की बदबू से मंदिर का वातावरण प्रदूषित होता है, अन्य लोगों को भी परेशानी होती है। अत: मौजे भी बाहर ही निकाल देना चाहिए। इससे पवित्रता और सफाई बनी रहेती है । जूते उतारने के पश्चात अपने हाथ-पैर पानी से धो लेना चाहिए। ताकि आपके हाथ-पैर पूर्णत: साफ और स्वच्छ हो जाए। ऐसा करने से धूल-मिट्टी आदि आपके पैरों के साथ मंदिर में नहीं जाएगी।
ध्यान रखें कि मंदिर में बैठते समय अपने पैर या पीठ देवी-देवताओं की प्रतिमा के सामने की ओर न हो। यह असम्मान की भावना व्यक्त करता है। मंदिर में कहीं भी बैठे, अपना मुख देवी-देवताओं की प्रतिमा की ओर रहना शुभ होता है।
दीपक के ऊपर हाथ घुमाने का वैज्ञानिक कारण
आरती के बाद सभी लोग दिए पर या कपूर के ऊपर हाथ रखते हैं और उसके बाद सिर से लगाते हैं और आंखों पर स्पर्श करते हैं। ऐसा करने से हल्के गर्म हाथों से दृष्टि इंद्री सक्रिय हो जाती है और बेहतर महसूस होता है।और आंखों के रोग भी दूर होते हैं।
मंदिर में घंटा लगाने का कारण
जब भी मंदिर में प्रवेश किया जाता है तो दरवाजे पर घंटा टंगा होता है जिसे बजाना होता है। मुख्य मंदिर (जहां भगवान की मूर्ति होती है) में भी प्रवेश करते समय घंटा या घंटी बजानी होती है, इसके पीछे कारण यह है कि इसे बजाने से निकलने वाली आवाज से सात सेकंड तक गूंज बनी रहती है जो शरीर के सात हीलिंग सेंटर्स को सक्रिय कर देती है।
भगवान की मूर्ति
मंदिर में भगवान की मूर्ति को गर्भ गृह के बिल्कुल बीच में रखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस जगह पर सबसे अधिक ऊर्जा होती है जहां सकारात्मक सोच से खड़े होने पर शरीर में सकारात्मक ऊर्जा पहुंचती है और नकारात्मकता दूर भाग जाती है।
परिक्रमा करने के पीछे वैज्ञानिक कारण
हर मुख्य मंदिर में दर्शन करने और पूजा करने के बाद परिक्रमा करनी होती है। परिक्रमा 7 से 21 बार करनी होती है। जब मंदिर में परिक्रमा की जाती है तो सारी सकारात्मक ऊर्जा, शरीर में प्रवेश कर जाती है और मन को शांति मिलती है।
मूर्ति पर फूल चढ़ाने के कारण
भगवान की मूर्ति पर फूल चढ़ाना भी एक परंपरा है। ऐसा करने से मंदिर परिसर में अच्छी और भीनी-भीनी सी खुश्बू आती है। अगरबत्ती, कपूर और फूलों की खुश्बू से सूंघने की शक्ति बढ़ती है और मन प्रसन्न हो जाता है।
देवालयमें प्रवेशसे पूर्व पहनी हुई चमडे की वस्तुएं क्यों उतार कर बाहर रखनी चाहिए ?
‘प्राणियोंके रज-तमात्मक चमडेसे निर्मित वस्तुओंसे प्रक्षेपित होने वाली तरंगोंसे जीव की देह के सर्व ओर रज-तमात्मक तरंगों का आवरण निर्मित होता है । इस आवरण से जीव की, देवालय में व्याप्त सात्त्विकता ग्रहण करने की क्षमता घटती है । इसलिए, उसे देवालय की सात्त्विकता से अल्प लाभ होता है । अतः, यथासंभव, चमडे से बनी वस्तुएं (उदा. पैंटका पट्टा) पहन कर देवालय में प्रवेश न करें ।’
पूजा में पीले रंग के कपड़े क्यों पहनना चाहिए?
हमारे यहां हर धार्मिक कार्य से जुड़ी अनेक मान्यताएं है। किसी भी धार्मिक कार्य का शुभारंभ करने से पहले हमारे देश में उससे जुड़ी परंपराओं का विशेष ध्यान रखा जाता है। भगवान की पूजा-आराधना में हिन्दू धर्म में पीले या केसरिया कपड़े पहनना शुभ माना जाता हैं। सामान्यत: यह बात सभी जानते हैं कि पूजा में काले कपड़े नहीं पहनना चाहिए। यदि पीले या केसरिया कपड़े पहने जाएं तो उसे बहुत शुभ माना जाता है। परंतु ऐसी मान्यता क्यों है,और इसकी क्या वजह है?
दरअसल अगर ज्योतिष के दृष्टिकोण से देखा जाए तो पीले रंग को गुरु का रंग माना जाता है। ज्योतिष के अनुसार गुरु ग्रह आध्यात्मिक और धर्म का कारक ग्रह है। ऐसा माना जाता है कि पूजा में पीले रंग के कपड़े पहनने से मन स्थिर रहता है और मन में अच्छे विचार आते हैं।
साथ ही पीले व केसरिया रंग को अग्रि का प्रतीक माना जाता है। अग्रि को हमारे धर्म ग्रंथों में बहुत पवित्र माना गया है। इसलिए ऐसी मान्यता है कि पीला रंग पहनने से मन में पवित्र विचार आते हैं। काले रंग को देखकर मन में नकारात्मक भावनाएं आती हैं। इसके विपरीत पीले रंग को देखकर मन में सकारात्मक भाव आते हैं। इसलिए पूजा में पीले कपड़े पहनना चाहिए।
भगवान की आरती क्यों करते हैं?
आरती प्रभु आराधना का एक अनन्य भाव है। हम भगवान को अभिषेक, पूजन और नेवैद्य से मनाते है, अंत में अपनी श्रद्धा, भक्ति और प्रभुप्रेम की अभिव्यक्ति के लिए आर्त भाव यानी भावविभोर होकर और व्याकुलता से जो पूजा करते हैं, उसे आरती कहते हैं। आरती, आर्त भाव से ही होती है। इसमें संगीत की स्वरलहरियां और पवित्र वाद्यों के नाद से भगवान की आराधना की जाती है। मूलत: आरती शब्दों और गीत से नहीं, भावों से की जाने वाली पूजा है। पूजा के बाद आरती करने का महत्व इसलिए भी है कि यह भगवान के उस उपकार के प्रति आभार है जो उसने हमारी पूजा स्वीकार कर किया और उन गलतियों के लिए क्षमा आराधना भी है जो हमसे पूजा के दौरान हुई हों।
आरती के प्रारंभ में शंखनाद, फिर चंवर डुलाना, कर्पूर और धूप से भगवान की आरती करना, जल से उसे शीतल करना और फिर विभिन्न मुद्राओं से आरती ग्रहण करना, यह सब परमात्मा द्वारा रची गई सृष्टि के प्रति अपने आभार और उसके वैभव का प्रतीक है। इस विज्ञान को हम समझें तो यह सृष्टि पंचतत्वों से मिलकर बनी है। आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वी। इन पंचतत्वों से हम भगवान को पूजते हैं, इस सृष्टि को रचने, उसमें सब सुख-संपदा देने और हमें मानव जीवन देकर इसे भोगने के उपकार के प्रति हम भगवान का धन्यवाद करते हैं और उसके (भगवान के) निकट रहने, उसकी कृपा में रहने के लिए आर्त भाव से प्रार्थना करते हैं।
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