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Friday, 15 April 2016

विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र

विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र
(कोई माने या ना माने)
काल अर्थात् समय मस्तिष्क की रचना मात्र है । यह कभी नहीं बदलता है । वास्तव में पदार्थ, स्थान और समय की कोई सत्यता नहीं है - अपनी पहचान नहीं है । महान वैज्ञानिक आइंस्टिन के अनुसार समय एवं दूरी की मान्यता भ्रामक एवं अवास्तविक है । जो कुछ दिखाई देता है वह खोखला आवरण मात्र है । हमारे नेत्र और मस्तिष्क अपनी बनावट और अपूर्ण संरचना के कारण वह सब देखता है जो हमें यथार्थ लगता है लकिन होता कुछ और है । समय न तो कम होता है और न ज्यादा होता है । यह तो बस ‘है’ -स्थिर है । इसका बड़ा या छोटा होना हमारी गति पर निर्भर है । अगर गति बढ़ती है तो समय कम लगता है । जैसे 100 साल पहले 100 किलोमीटर की यात्रा कई दिनों में होती थी । परंतु आज यह कई घंटों मे हो जाती है क्योंकि हमारी गति तकनीकी विकास के साथ बढ़ गई है और समय छोटा या कम लगने लगा है । जर्मन गणितज्ञ तथा दर्शन शास्त्री लेबनीज़ (Leibniz) का भी मानना है कि काल हमारी कल्पना मात्र (Figments of imagination) है । यह वास्तविक नहीं है परंतु दूसरे जर्मन दार्शनिक इमेनूअल कैंट (I. Kant) जो केवल कारण और औचित्य की बातें करते थे, उनका मानना है कि काल वास्तविक है (Time is real)। जो भी हो अगर हम संसार को वास्तविक समझते है तो समय भी वास्तविक है और अगर यह संसार अवास्तविक है तो समय भी अवास्तविक है ।
आधुनिक वैज्ञानिक यह मानते है कि बिंग बैंग से ही सृष्टि तथा समय की उत्पत्ति हुई परंतु उससे पहले समय था या नही इसके बारे में कुछ निश्चित रूप से कहने की स्थिति में नही है । परंतु भागवत महापुराण में इसे इस तरह कहा गया है -
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् । 
पश्चादहं यदेतच्च यो अवशिष्येत् सो अस्म्येहम् ।।
सृष्टि के पूर्व केवल मैं-ही-मैं था । मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न दोनों का कारण अज्ञान था । जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है वह भी मैं हूँ और जो कुछ बचा रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ।
ऋग्वेद की ऋचायें भी यही संकेत करती हैं -
हिरण्य गर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
सदाधार पृथ्वीम् द्यामुतेमाम् कस्मै देवाय हविषा विधेम् ।।
(ऋग्वेद अध्याय 8)
अर्थात् जो परमेश्वर सृष्टि से पहले ही था, जो इस जगत का स्वामी है वही पृथ्वी से लेकर सूर्यपर्यन्त सभी जगत को रचकर धारण कर रहा है । इसलिए उसी सुख स्वरूप परमेश्वर की ही हम उपासना करें अन्य की नहीं ।
सारांशतः सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित है वे ही वास्तविक तत्व हैं ।
मूलतः काल तो सर्वथा अविभाज्य सूक्ष्म तत्व है, अमूर्त होता है । परंतु व्यवहार की सिद्धि के लिये काल का विभाजन किया जाता है । एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के काल से मनुष्य के अहोरात्र (दिन-रात) का निर्धारण होता है । इसी अहोरात्र का सूक्ष्मतम विभाजन करके काल-गणना का श्रीगणेश होता है। पुराणों के आधार पर मनुष्य के एक अहोरात्र को सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंशों में विभाजित करने का क्रम बड़ा ही वैज्ञानिक है । श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि दो परमाणु (समवाय-सम्बन्ध से) संयुक्त होकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओं के मिलने से एक ‘त्रसरेणु’ बनता है, जिसे झरोखे में से होकर आयी हुई सूर्य की किरणों के प्रकाश के माध्यम से आकाश में उड़ते हुए देखा जा सकता है । ऐसे तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य की किरणों को जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं । 
इसे इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है -
क्रति = सैकन्ड का 34000 वाँ भाग
1 त्रुति = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
2 त्रुति = 1 लव ,
1 लव = 1 क्षण
30 क्षण = 1 विपल ,
60 विपल = 1 पल
60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,
2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,
7 दिवस = 1 सप्ताह
4 सप्ताह = 1 माह ,
2 माह = 1 ऋतू
6 ऋतू = 1 वर्ष ,
100 वर्ष = 1 शताब्दी
10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,
432 सहस्राब्दी = 1 युग
2 युग = 1 द्वापर युग ,
3 युग = 1 त्रैता युग ,
4 युग = सतयुग
सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
76 महायुग = मनवन्तर ,
1000 महायुग = 1 कल्प
1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
महाकाल = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )

विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यही है। जो हमारे देश भारत में बना और अब तक सबसे अच्छा है। पर अब तक इसे भारत के शिक्षा पाठयक्रम में शामिल नहीं किया गया है । आओ इस महान ज्ञान को शिक्षा मे शामिल करवा कर भारत की नयी पीढी का महान भारत से महान परिचय करवाएँ 

।। जय हिन्द जय भारत ।।

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