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Monday, 17 July 2017

3 ऐसे भक्त, जिनके शरीर का प्रियतम प्यारे से मिलन हो गया था।

*3 ऐसे भक्त, जिनके शरीर का कुछ भी पता नहीं चल सका* 
*कबीरदास* (1398-1518)— 1518 में कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग दी। ऐसा माना जाता है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। इसी विवाद के चलते जब समाधि कमरे के दरवाजे को खोला गया, तो वहाँ केवल दो फूल थे जो अंतिम संस्कार के लिये उनके हिन्दू और मुस्लिम अनुयायियों के बीच बाँट दिया गया। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। 
कवि कबीर दास के बारे में ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अपने मरने की जगह खुद से चुनी थी, मगहर, जो लखनउ शहर से 240 किमी दूरी पर स्थित है। लोगों के दिमाग से मिथक को हटाने के लिये उन्होंने ये जगह चुनी थी उन दिनों, ऐसा माना जाता था कि जिसकी भी मृत्यु मगहर में होगी वो अगले जन्म में बंदर बनेगा और साथ ही उसे स्वर्ग में जगह नहीं मिलेगी। कबीर दास की मृत्यु काशी के बजाय मगहर में केवल इस वजह से हुयी थी क्योंकि वो वहाँ जाकर लोगों के अंधविश्वास और मिथक को तोड़ना चाहते थे। इससे जुड़ा उनका एक खास कथन है कि “जो कबीरा काशी मुएतो रामे कौन निहोरा” अर्थात अगर स्वर्ग का रास्ता इतना आसान होता तो पूजा करने की जरुरत क्या है।
*चैतन्य महाप्रभु* (1486-1534)— 15 जून, 1534 को ४८ वर्ष की उम्र में रथयात्रा के दिन जगन्नाथपुरी में संकीर्तन करते हुए वह जगन्नाथ जी में लीन हो गए और शरीर का कुछ भी पता नहीं चल सका I लेकिन  उनका नाम सदा अमर रहेगा। भक्ति की उन्होंने जो धारा बहाई, वह कभी नहीं सूखेगी और लोगों को हमेशा पवित्र करती रहेगी।
चैतन्य महाप्रभु (१८ फरवरी, १४८६-१५३४) वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे !!
*मीराबाई* (1498-1547)— मीराबाई बहुत दिनों तक वृन्दावन में रहीं और जीवन के अंतिम दिनों में द्वारका चली गईं। जहाँ 1547 ई. में वह नाचते-नाचते श्री रणछोड़राय जी के मन्दिर के गर्भग्रह में प्रवेश कर गईं और मन्दिर के कपाट बन्द हो गये। जब द्वार खोले गये तो देखा कि मीरा वहाँ नहीं थी। उनका चीर मूर्ति के चारों ओर लिपट गया था और मूर्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही थी। मीरा मूर्ति में ही समा गयी थीं। मीराबाई का शरीर भी कहीं नहीं मिला।...
मीरा की मृत्यु को लेकर कई तरह की बाते बताई जाती है। जिनमें कहा जाता है कि लूनवा के भूरदान ने मीरा की मौत 1546 में बताई, जबकि रानीमंगा के भाट ने मीरा की मौत 1548 में बताया तो वहीं डा० शेखावत अपने लेख और खोज के अधार पर मीरा की मौत 1547 में बताते हैं|
ये भी कहा जाता है जब उदयसिंह राजा बने तो उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई कि उनके परिवार में एक महान भक्त के साथ कैसा दुर्व्यवहार हुआ। तब उन्होंने अपने राज्य के कुछ ब्राह्मणों को मीराबाई को वापस लाने के लिए द्वारका भेजा। जब मीराबाई आने को राजी नहीं हुईं तो ब्राह्मण जिद करने लगे कि वे भी वापस नहीं जायेंगे। उस समय द्वारका में 'कृष्ण जन्माष्टमी' आयोजन की तैयारी चल रही थी। मीराबाई ने कहा कि वे आयोजन में भाग लेकर चलेंगी। उस दिन उत्सव चल रहा था। भक्तगण भजन में मग्न थे। मीरा नाचते-नाचते श्री रणछोड़राय जी के मन्दिर के गर्भग्रह में प्रवेश कर गईं और मन्दिर के कपाट बन्द हो गये। जब द्वार खोले गये तो देखा कि मीरा वहाँ नहीं थी। उनका चीर मूर्ति के चारों ओर लिपट गया था और मूर्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही थी। मीरा मूर्ति में ही समा गयी थीं। मीराबाई का शरीर भी कहीं नहीं मिला। उनका उनके प्रियतम प्यारे से मिलन हो गया था।

हरि हरि बोल🙏🏻💐🌹💐🙏🏻

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