महाराज युधिष्ठिर ने नारदजी से पूछा - भगवान से शत्रुत्व होने पर भी शिशुपाल को सद्गति क्योँ प्राप्त हुई ? उसने भगवान को गालियाँ दी फिर भी नरकवासी क्यो न हुआ ? ऐसी सायुज्य गति ऊसे क्यो मिली ? भगवान से द्वेष करने वाले शिशुपाल और दंतवक्त्र नरकवासी होने चाहिए थे , तो ऐसी उल्टी बात क्यो हो गयी ?
इन प्रश्नो का उत्तर देते हुए -देवर्षि नारद जी धर्मराज युधिष्ठिर से कहते है कि परमात्मा मेँ किसी प्रकार तन्मय होने की आवश्यकता है। परमात्मा ने कहा है कि जीव चाहे जिस किसी भी भाव से मेरे साथ तन्मय बने मैँ उसे अपने स्वरुप का दान करता हूँ ।
इसलिए किसी भी भाव से मन, परमात्मा के साथ एकाकार हौना चाहिए । जिस प्रकार भक्ति के द्वारा ईश्वर से मन लगाकर कई मनुष्य परमात्मा की गति को पा सके हैँ , वैसे ही काम , द्वेष , भय या स्नेह के द्वारा भगवान से नाता लगाकर कई व्यक्ति सद्गति पा गये हैँ । गोपियोँ ने मिलन की तीव्र कामना से , कंस ने भय से , शिशुपाल आदि कुछ राजाओँ ने द्वेष से , यादवोँ ने पारिवारिक सम्बन्ध से , आपने स्नेह से और हमने भक्ति से अपने मन को भगवान से जोड़ लिया है !!!
गोप्यः कामाद्भयात् कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः ।
सम्बन्धाद् वृष्णयः स्नेहाद्यूयं भक्त्या वयं विभो ।।
भा. 7/1/30
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