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Sunday, 20 March 2016

अंग्रेजों ने छीनी थी खुशियां लेकिन अब गुलाल उड़ाकर मुसलमान लगाते हैं देवी के जयकारे!

अंग्रेजों के फरमान ने छीन ली थी खुशियां, आज भी नहीं होता HOLI का जश्न
झांसी. मान्यता है कि झांसी के एरच से होली की शुरुआत हुई थी। लेकिन, यहां इसे अशुभ माना जाता है। बताया जाता है कि होली के दिन ही लक्ष्मीबाई के बेटे दामोदर राव को अंग्रेजों ने उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया था। इससे नाराज रानी झांसी और वहां की जनता ने होली नहीं मनाई थी। आज भी वहां ऐसे लोग हैं जो होली के अगले दिन इसे मनाते हैं।
अंग्रेजों ने सुनाया था फरमान
21 नवंबर, 1853 को झांसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद वहां की कमान लक्ष्मीबाई ने संभाली।
- गंगाधर राव ने निधन से पहले ही एक बालक (दामोदर राव) को गोद लिया था और उत्तराधिकारी घोषित किया। अंग्रेजी शासन ने इसे मानने से इनकार कर दिया। जिस दिन यह फरमान सुनाया गया, वह होली का ही दिन था।
किताब में है जिक्र
ओम शंकर 'असर' की किताब 'महारानी लक्ष्मीबाई और उनकी झांसी' के अनुसार, यह फरमान सुनाते हुए लार्ड डलहौजी ने लेटर लिखा था। इसमें लिखा, 'भारत सरकार की 7 मार्च 1854 की आज्ञा के अनुसार झांसी का राज्य ब्रिटिश इलाके में मिलाया जाता है। इस इश्तहार के जरिए सब लोगों को सूचना दी जाती है कि झांसी प्रदेश का शासन मेजर एलिस के अधीन किया जाता है। प्रदेश की प्रजा अपने को ब्रिटिश सरकार के अधीन समझे और मेजर एलिस को 'कर' दिया करे। सुख, शांति और संतोष के साथ जीवन निर्वाह करे।'
होली के जश्न की तैयारियां थी, इसी बीच अंग्रेजों ने यह फरमान सुना दिया। शोक में डूबे लोगों ने होली नहीं मनाई। रानी को किला छोड़कर दूसरे महल में रहना पड़ा था। इसके बाद लोग लंबे समय तक रंगों से दूर रहे। अरिंदम घोष बताते हैं कि 1854 को इस घटना के 150 साल बाद तक झांसी में होली के दिन होली नहीं मनाई जाती थी। किसी को रंग खेलना भी होता था तो वह एक दिन बाद खेलता था।
20 साल पहले तक झांसी में होली के दिन रंग नहीं खेला जाता था।
लेकिन अब सभी समाज के लोग फाग गाकर होली मनाते हैं। इसमें मुस्लिम भी शामिल होते हैं। 
गुलाल उड़ाकर मुसलमान लगाते हैं देवी के जयकारे!
 
प्रागीलाल का कहना है कि इस होली में हिंदुओं के साथ मुसलमान भी बढ़-चढक़र हिस्सा लेते हैं और देवी के जयकारे भी लगाते हैं। होली के मौके पर यहां का नजारा उत्सवमय होता है, बुंदेलखंड हमेशा से  सांप्रदायिक सदभाव की मिसाल रहा है। यहां कभी धर्म के नाम पर विभाजन रेखाएं नहीं खिंची हैं। होली के मौके पर वीरा में आयोजित समारोह इस बात का जीता जागता प्रमाण है। यहां फाग (जिसे भोग की फाग कहा जाता है) के गायन की शुरुआत मुस्लिम समाज का प्रतिनिधि ही करता रहा है, उसके गायन के बाद ही गुलाल उडऩे का क्रम शुरू होता रहा है। होली के मौके पर इस गांव के लोग पुराने कपड़े नहीं पहनते, बल्कि नए कपड़ों को पहनकर होली खेलते हैं, क्योंकि उनके लिए यह खुशी का पर्व है। 
आपको होली के बारे में कुछ ऐसे ही इंट्रेस्‍ट‍िंग फैक्‍ट्स बता रहें है।
हर कोई रंगों से सराबोर होने की तैयारी में है, लेकिन सभी को यह नहीं पता कि इस रंग-बिरंगे उत्सव की शुरुआत झांसी से हुई थी
जिस होली के त्योहार को पूरे देश में मनाया जाता है, उसकी शुरुआत रानी लक्ष्मीबाई के शहर झांसी से हुई थी। सबसे पहली बार होलिका दहन झांसी के प्राचीन नगर एरच में ही हुआ था। झांसी में एक ऊंचे पहाड़ पर वह जगह आज भी मौजूद है, जहां होलिका दहन हुआ था। - इस नगर को भक्त प्रह्लाद की नगरी के नाम से जाना जाता है। झांसी से एरच करीब 70 किलोमीटर दूर है।
भक्‍त प्रहलाद से जुड़ी है घटना सतयुग में हिरण्यकश्यप राक्षस का राज था। हिरण्यकश्यप का भारत में एक छत्र राज था। झांसी के एरच को हिरण्यकश्यप ने अपनी राजधानी बनाया। घोर तपस्या के बाद उसे ब्रह्मा से अमर होने का वरदान मिल गया। इससे वह अभिमानी हो गया। वह खुद को देवता मानने लगा और उसने प्रजा को अपनी पूजा कराने से मजबूर कर दिया, लेकिन हिरण्यकश्यप की यह बात उसके ही पुत्र भक्त प्रहलाद ने नहीं - मानी और उसकी पूजा करने से इनकार कर दिया।  वह भगवान विष्‍णु की पूजा-अर्चना करने लगा। इससे हिरण्यकश्यप क्षुब्ध हो गया। उसने प्रहलाद को मारने का मारने का षड़यंत्र रचना शुरू कर दिया।
हाथी से कुचलवाया
हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रहलाद को मारने के लिए  प्रहलाद को हाथी से कुचलवाया। उंचे पहाड़ से बेतवा नदी में धक्का दिया, लेकिन प्रहलाद बच गए। कई प्रयास विफल होने के बाद हिरण्यकश्यप ने होलिका के साथ षड़यंत्र रचा। होलिका हिरण्यकश्यप की बहन थी। उसे वरदान था कि उसे अग्नि नहीं जला सकती। वहीं, हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका से भक्त प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करने को कहा। वह अपने वरदान के बारे में भूल गई कि यदि किसी और के साथ जाएगी तो खुद ही जल जाएगी और हिरण्यकश्यप की बातों में आ गई।
प्रहलाद के बचने की खुशी में लगाया गया रंग एरच के ग्राम ढिकौली से बने उंचे पहाड़ पर अग्नि जलाई गई। होलिका भक्त प्रहलाद को लेकर इसी अग्नि में प्रवेश कर गई। इससे वह उस आग में जलकर खाक हो गई, जबकि भगवान विष्णु ने भक्त प्रहलाद को अग्नि से बचा लिया। आसपास क्षेत्र में भीषण आग फैल गई। इसके बाद प्रहलाद को एक अग्नि से तपे हुए खम्भे से बांध कर मारना चाहा। खडग से उस पर प्रहार किया। तभी भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लिया और हिरण्यकश्यप का वध कर डाला। उसी दिन से होली को जलाने और भक्त प्रहलाद के बचने की खुशी में अगले दिन रंग गुलाल लगाए जाने की शुरुआत हो गई।
क्‍या कहते हैं जानकार इतिहास के जानकार हरिओम दुबे बताते हैं कि एरच को भक्त प्रहलाद की नगरी के रूप में ही जाना जाता है। उनके पास सिक्कों के संग्रह में से एक दुर्लभ सिक्का भी है, जिसमें एरच का नाम ब्रहम लिपि में एरिकच्छ लिखा है और नृत्य करती हुई मोर बनी हुई है। दतिया जिले में प्राप्‍त अशोक के शिलालेख में लिखी लिपि का तरीका एक जैसा है। इससे प्रतीत होता है कि भक्त प्रहलाद की नगरी में यह सिक्का में लगभग 2300 साल पहले चलता था।
धार्मिक महत्व होने के बाद भी यह स्थान बदहाल हालत में है। राज्य सरकार ने इस स्थान को विकसित करने और धार्मिक महत्व के स्थानों को विकसित करने के लिये पैकेज दिया है। 

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