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Thursday, 3 March 2016

आज बिरज में होरी रे रसिया-फाग खेलन बरसाने आए हैं नटवर नंद किशोर

ब्रज भूमि में होली होरी की रसीया*****
ब्रजधरा के होली के सलौने उल्लास के सामने स्वर्ग का आनंद भी फीका लगने लगता है इसीलिए नागरीदास यह लिखने के लिए मजबूर हुए थे - 'स्वर्ग बैकुंठ में होरी जो नाहि तो कोरी कहा लै करे ठकुराई'
होली ब्रज में अनुराग, उल्लास, हास-परिहास का रमणीय आनंद लेकर अवतरित होती है। रस-रंग का महकता आह्लाद । ब्रजभूमि के घर-घर का उत्सव बन जाता है। बनावटी लोक मर्यादाओं के सारे बंधन एक झटके में तार-तार हो जाते हैं। प्रेम-अनुराग की उमड़ती-घुमड़ती सरिता सारी वर्जनाओं को तोड़ देती हैं। ब्रज के गली-मोहल्लों, घर-घर में सारे लोगों की मस्ती के कारण मानव निर्मित भेदभाव के पाखंड के सारे लिबास एक झटके में उतर जाते हैं और शेष रह जाता है, प्रेम का दिव्य स्वरूप।
ब्रज की होली तथा रसिया का अद्वैत संबंध है। रसिया ऐसे व्यक्ति को कहते हैं जो जीवन में चारों ओर अनुराग का उल्लास उत्पन्न कर देता है। होली के अवसर पर तो वह घर-घर में विशेष वंदनीय बन जाता है। श्रीकृष्ण रसिया के सिरमौर आदर्श आराध्य हैं।
ब्रजधरा के होली के पावन सलौने, मीठे-मीठे उल्लास के सामने स्वर्ग का आनंद भी फीका लगने लगता है। इसीलिए तीन सौ वर्ष पूर्व आनंद के इन क्षणों में डूबे नागरीदास यह लिखने के लिए मजबूर हुए थे - 'स्वर्ग बैकुंठ में होरी जो नाहि तो कोरी कहा लै करे ठकुराई।' कवि-कलावंतों ने ब्रज की इस होली का तन्मय होकर शब्दों के सांचे में पूरे कौशल के साथ सजाया है।
राधा-कृष्ण के जीवनकाल से ही अनुराग के इस त्योहार को ब्रज के गांव-गांव, घर-घर में लोग राग-रंग, मौज-मस्ती, हास-परिहास, गीत-संगीत के साथ परंपरा से आज तक मनाते आ रहे हैं। ब्रज में ऐसा कोई हाथ नहीं होता जो गुलाल से न भरा हो, पिचकारियों के सुगंध भरे रंग से सराबोर न हो। गुलाल के रंगीन बादल से छा जाते हैं आसमान में। सदियों से गाया जाना वाला यह लोकगीत नवगति, नवलय और नवताल के साथ सारे वातावरण में गूंज उठता है।
टोलियों में रंग-गुलाल में सने नर-नारियों के झुंड के झुंड एक-दूसरे पर अबीर-गुलाल की वर्षा करते हुए, गली-गली मोहल्लों-मोहल्लों में एक अजब मस्ती में डूबे हुए गाते फिरते हैं -
आज बिरज में होरी रे रसिया,
होरी रे रसिया बरजोरी रे रसिया।
कोन के हाथ कनक पिचकारी,
कोन के हाथ कमोरी रे रसिया।। आज।।
कृष्ण के हाथ कनक पिचकारी,
राधा के हाथ कमोरी रे रसिया।। आज ।।
उड़त गुलाल लाल भये बादर,
केसर रंग कौं घेरी रे रसिया।। आज ।।
**
रसिया कृष्ण ने ब्रज में ऐसा भारी ऊधम मचा रखा है कि वह रंग डाले बिना किसी को निकलने ही नहीं देता है। बिचारी गोरी बार-बार रसिया श्याम से अनुनय-विनय करती है कि तू मुझ पर रंग मत डाल, नहीं तो मैं तुझे गालियां देने लग जाऊंगी। सास-ननद क्या कहेंगी। सब हंस-हंस कर मेरा मखौल बनाएंगी -
मति मारौ श्याम पिचकारी, अब देऊंगी गारी।
भीजेगी लाल नई अंगिया, चूंदर बिगरैगी न्यारी।
देखेंगी सास रिसायेगी मोपै, संग की ऐसी है दारी।
हंसेगी दै-दै तारी पर दूसरी तरफ ब्रज की गोरी बड़े उल्लास के साथ चटक-मटक कर रसिया कृष्ण के साथ होली खेलने के रस-रंग में तन-मन की सुधि भूल गई है। वह स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानती है कि आज मोहन स्वयं उससे होली खेलने आया है। उसका यौवन सार्थक हो जाता है। वह बड़े प्रेम से श्याम से अपने नरम-नरम गालों पर खूब गुलाल मलवाती है, रंग डलवाती है। हे कृष्ण तेरी जो इच्छा हो वह कर ले परंतु इन आंखों को बचाकर अबीर डाल, नहीं तो तेरा रूप कैसे देख पाएंगी। 
इसलिए मैंने थोड़ा घूंघट डाल रखा है, तेरे पैर पड़ती हूं, इसे मत हटा -
भावै तुम्है सो करो मोहि लाल,
पै पाउ परौ, जिन घूंघट टारो।
वीर की सौं हम देखि हैं कैसे,
अबीर की सौं हम देखि हैं कैसे,
अबीर तो आंख बचाय के डारो।
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आखिर में एक दिन श्याम सुंदर गोपियों के हाथ लग ही जाते हैं। इस रसिया ने हमको बहुत दुःख दिया है, हमारे मन में अपने रूप-रस की जी भरकर मोहनी भरी है, प्रेम की अनूठी अंगड़ाइयां प्रदान की हैं। यह जिस बैरन बांसुरी पर मोहित होकर हमें भूल जाता है, उसे तोड़ने का आज विधाता ने अचूक अवसर प्रदान किया है। मीठे-मीठे भावों के साथ देखिए रसिया में बदला लेने की ब्रज ललनाओं की योजना -
होरी खेलन आयो श्याम आज याय रंग में बोरौ री।
कोरे-कोरे कलस मंगाओ रंग-केसर घोरी री।
रंग-बिरंगौ करो आज कारे ते गौरो री।
पीतांबर लेउ छीन याहि पहराय देउ चोरो री।
हरे बांस की बांसुरिया जाहि तोर मरोरो री।
हा-हा खाय परै जब पैंया तब याहि छोरो री।
ब्रज की होली की रसधारा से जुड़ा एक तीर्थ है बरसाना। फागुन शुक्ला नवमी के दिन नंदगांव के हुरिहारे कृष्ण और उनके सखा बनकर राधा के गांव बरसाने जाते हैं। बरसाने की ललनाएं राधा और उसकी सखियों के धर्म का पालन कर नन्दगांव के छैल छकनिया हुरिहारिरों पर रंग की बौछार करती हैं। अबलाओं के प्रहारों से कई बार गोप लहूलुहान हो जाते हैं और सच मानिए वे घाव पर ब्रजरज मलकर 'जै गिरराज की' बोलते हुए अपना सब कुछ भूलकर पुनः रस-रंग के अपूर्ण युद्ध में कूद पड़ते हैं। अपार जनसमूह इस अभूतपूर्व रस-रंग के आनंद में खो जाता है और लोकगीत पूरे वेग के साथ वातावरण में गूंजता है -
फाग खेलन बरसाने आए हैं नटवर नंद किशोर
घेर लई सब गली रंगीली
छाय रही छवि घटा रंगीली
ढप-ढोल मृदंग बजाए है
बंशी की घनघोर -
हुरिहारे अपनी ढालों पर लाठियों के प्रहारों को घुटनों के बल फुदक-फुदक कर बचाव करते हैं। पुरुष साखियां गाते हैं -
लै रहे चोट ग्वाल ढालन पै
केसर कीच मलें गालन पैं
हरिहर बांस मंगाए हैं, चलन लगे चहुंओर
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ब्रज के पुष्टि संप्रदाय के वैष्णव देवालयों में रस-रंग और राग के सौंदर्य से ओत-प्रोत तथा सुगंधित अबीर-गुलाल से विभूषित होली के उत्सव पूरे एक माह तक चलते हैं। इन मंदिरों में 'बसंत बनाय चली ब्रज सुंदरी, लै पूजा को थार' के बोलों द्वारा बसंत पंचमी के दिन एक माह तक चलने वाले होली उत्सवों की शुरुआत करते हैं। पंद्रह दिन तक इन देवालयों में बसंत के पद गाए जाते हैं। पूर्णीमा के दिन संध्या आरती के अवसर पर होरी का डांडा रोपा जाता है। 'ऋतु सुख खेलियो आय के फागुन मास' पद गायन से इस दिन से धमार गायन की शुरुआत होती है।
धमार गायन में विभास, बसंत, ललित, देव, गंधार, बिलावत, सारंगी धन श्री आदि रागों का कीर्त्तनिया उपयोग करते है -
हो हो बोलत डोलत मोहन खेलत होरी', 'जमुना तट क्रीड़त नवनंदन होरी परम सुहाई', जैसे बोलों वाले धमार पदों के गायन से देवालय का समस्त वातावरण कृष्ण-राधा तथा गोपियों की धमाचौकड़ी के होली के भावों से भरे संगीत के काव्य रस में डूब जाता है।
नाथद्वारा श्रीनाथ जी में भी उक्त परंपरा का निर्वहन होता है। फागुन शुक्ल नवमी को पाटोत्सव तथा धुलंडी के दिन दोलोत्सव पर प्रभु श्रीनाथ जी अपने भक्तों से होली खेलते हैं, चंग की धुन पर जमकर कृष्ण की होली के रसिया गाए जाते हैं तथा समस्त देवालय होली के रस रंग में डूब जाता है।
जयपुर के गोविंद देव जी के देवालय में होली के उत्सवों में न रंग होता है, न गुलाल होता है। केवल गायन-वादन-नृत्य के फागोत्सव नाम से कई दिन के उत्सव होते हैं। इसमें देश के नामी कलाकार गायन-वादन तथा नृत्य द्वारा गोविंद देव जी देवालय के प्रांगण में राधा-गोपी-कृष्ण के होली के गीतों पर हजारों भक्तों के बीच अपनी कला प्रस्तुत कर धन्य होते हैं।
ब्रज में होली का रस-रंग आज भी अपनी सांस्कृतिक पारंपरिक पहचान बनाए हुए हैं। रोजी-रोटी के कठोर संघर्ष में डूबे लोग साल भर कितने भी उदास रहें परंतु होली पर तो सारे तनावों को उतार-फेंककर एक मस्ती के आलम में खो जाते हैं। हर घर की बाला गोपी बन जाती है। हर युवा कृष्ण का सखा बनकर छेड़खानी-ठिठोली, हास-परिहास को अपना धर्म मान लेता है।
होली क्या आती है, मदमस्त हो जाती है, ब्रज-धरनी। ब्रज ललनाएं अंग-प्रत्यंग से मटक-मटक कर, सैनों से चटक-मटक-चटकारे लेती हुई गाने लग जाती हैं - 'ससुर मोय देवर सो लागे।' ब्रज के वैष्णव देवालयों में भी होली उत्सव पूरे माह चलते हैं जिसमें प्राचीन भारतवासियों के मन्मथपूजन, गायन-वादन एवं नृत्य के समस्त फागुन के उत्सव आज भी जीवित हे ।।
।।श्री राधे राधे।।

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